ज्योतिष के आधार पर काल सर्प दो शब्दों से मिलकर बना है “काल एवं सर्प”। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार काल का अर्थ समय होता है एवं सर्प का अर्थ सांप इसे एक करके देखने पर जो अर्थ निकलकर सामने आता है वह है समय रूपी सांप। इस योग को ज्योतिषशास्त्र में अशुभ माना गया है। इस योग को अधिकांश ज्योतिषशास्त्री अत्यंत अशुभ मानते हैं परंतु इस योग के प्रति ज्योतिष के महान विद्वान पराशर एवं वराहमिहिर चुप्पी साधे हुए हैं।
शास्त्रों का अध्ययन करने पर हमने पाया राहू के अधिदेवता काल अर्थात यमराज है एवं प्रत्यधि देवता सर्प है, एवं जब कुंडली में बाकी के ग्रह राहु एवं केतु के मध्य आ जाते तो इस संयोग को ही कालसर्प योग कहते है। वास्तव में प्राणी के जन्म लेते है उसकी कुंडली में ग्रहो का एक अद्भुत संयोग विद्धमान हो जाता है जो समय के अनुसार चलता रहता है, ऐसे ही ग्रहो की गति बदलते बदलते एक ऐसे क्रम में आ जाती है जिसमे सभी ग्रहों की स्थिति राहु एवं केतु के मध्य हो जाती है, इसमें राहु की तरफ सर्प का मुख होता है एवं केतु की तरफ सर्प
की पूँछ होती है ऐसा माना जाता है, इस संयोग के कारण ही व्यक्ति की कुंडली में कालसर्प योग आ जाता है, वैसे काल सर्प का जो अर्थ ज्योतिष ने बताया है वो है ‘समय’ का सर्प के समान वक्र होना, जिसकी कुण्डली में यह योग होता है उसके जीवन में काफी उतार चढ़ाव एवं संघर्ष आता है। इस योग को अशुभ एवं विध्वंसकारी माना गया है। राहु एवं केतु ग्रह होते हुए भी ग्रह नहीं है, ऋग्वेद के अनुसार राहु केतु ग्रह नहीं हैं बल्कि असुर हैं, राहु केतु वास्तव में सर एवं धड़ का अलग अलग अस्तित्व है, जो की स्वर्भानु दैत्य के है, ब्रह्मा जी ने स्वरभानु को वरदान दिया था जिससे उसे ग्रह मंडल में स्थान प्राप्त हुआ। स्वरभानु के राहु एवं केतु बनने की कथा सागर मंथन की कथा का ही एक हिस्सा है।